maandag 11 oktober 2010

मुस्लिमो ने एक मौका गवां दिया अब कभी कोई भारत वासी इन पर विस्वास नहीं करेगा

हिंदुस्तान के दूसरे सबसे बड़े बहुसंख्यक (अल्पसंख्यक नहीं) समुदाय को उसके लीडरानों ने बार-बार पीछे ढकेलने का काम किया है और उन्हें हताश किया है।अयोध्या विवाद पर फैसले के बाद यही वक्त है कि हिंदुओं के साथ सेतु का निर्माण किया जाए।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद मैं उन्हीं पुराने चेहरों को देखकर अचंभित था। विभिन्न टीवी चैनलों पर भारतीय मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाले वही तथाकथित मुस्लिम नेता। इन तथाकथित प्रतिनिधियों ने इतने सालों में उनकी राह का अनुसरण करने वाले लोगों को भावनात्मक, संवेदनात्मक, शैक्षिक और आर्थिक रूप से पूरी तरह नष्ट करके रख दिया है।

ये वही अराजक धर्मगुरु और तथाकथित प्रबुद्ध लोग हैं, जो बाबरी मस्जिद मुद्दे को सड़कों पर खींच लाने, उसमें सांप्रदायिक तनाव का जहर घोलने, ऐतिहासिक मस्जिद को गिरने देने और फिर मुस्लिमों को अपनी रक्षा करने के लिए निहत्था और निरीह छोड़ देने के लिए जिम्मेदार हैं।

बाबरी मस्जिद विवाद पर कोर्ट का फैसला आने के बाद मुस्लिमों के किसी भी इलाके से किसी तरह की हिंसा की एक भी घटना की जानकारी नहीं मिली। इससे पता चलता है कि उन्होंने कोर्ट के निर्णय को स्वीकार कर लिया।

मौजूदा मुस्लिम नेता पूरी तानाशाही से नियम-कायदे तय करते हैं और जिन मुद्दों पर सार्वजनिक रूप से बात होनी चाहिए, बंद कमरों में बैठकर उन पर फैसले करते हैं। जनहित की मीठी-मीठी बातों, भड़काने वाली हिंसा और अधूरी एकतरफा दृष्टि व गलत शिक्षा वाले अपने धर्मगुरुओं द्वारा सताए और धोखा दिए जाने के कारण ही आज इस देश का दूसरे नंबर का सबसे बड़ा समुदाय चौराहे पर खड़ा है।

सच्चाई तो यह है कि मुस्लिम भी राम का बहुत सम्मान करते हैं और अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण किए जाने से उन्हें कोई आपत्ति नहीं है। शायर इकबाल ने राम के अस्तित्व की प्रामाणिकता पर बहुत सुंदर और मार्मिक नज्म लिखी है :है राम के वजूद पे हिंदोस्तां को नाज। अहले नजर समझते हैं उसको इमाम-ए-हिंद।

भारतीय मुस्लिमों की सबसे बड़ी त्रासदी उनका नेतृत्व है। उस दिन सैयद शहाबुद्दीन एक नए भारत की ओर नजर उठाने की बजाय पुराने घावों को कुरेदने की कोशिश कर रहे थे। निश्चित तौर पर वह आम मुस्लिमों की सोच और भावनाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करते। जो भी थोड़े-बहुत दरवाजे हिंदू भाइयों ने मुस्लिमों के लिए खोले थे, सैयद साहब की टिप्पणियों ने उसे भी बंद कर दिया।

शैक्षिक पिछड़ापन, समाज में विचित्र नजरों से देखा जाना, सत्ता से दूरी, धार्मिक रूढ़िवादिता और राजनीतिक औचित्य के सवालों ने पूरे मुस्लिम समुदाय को भीतर तक जकड़ रखा है। इनमें से ज्यादातर के लिए उनके तथाकथित प्रतिनिधियों को जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए।

सत्ता ने सियासी लड़ाई में कूदने के लिए जिन धार्मिक नेताओं को बहलाने-फुसलाने की कोशिश की, उन्होंने समुदाय की तकलीफों को और बढ़ाने का काम किया। वे लोग मदरसों में किसी भी तरह के सुधार की कोशिश करने वाले व्यक्ति को बहुत संदेह की दृष्टि से देखते हैं।

प्रबुद्ध और पढ़े-लिखे मुस्लिम भी एक किस्म की हीनता और भय से ग्रस्त हैं। इसीलिए वे अल्पसंख्यकों के उन अधिकारों के बारे में सोचते हैं, जिससे उन्हें इतने सालों तक वंचित रखा गया। हर चुनाव के दौरान बार-बार यह बात साफ प्रमाणित हुई है कि वे सभी लोग वोट बैंक की घातक राजनीति में ही आकंठ डूबे हुए हैं।

लेकिन इसी के साथ-साथ हिंदुओं को यह नहीं सोचना चाहिए कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्णय ने बाबरी मस्जिद को गिराए जाने पर स्वीकृति की मोहर लगा दी है। हिंसा की कोई भी कार्रवाई स्वीकार्य नहीं है। लेकिन इन स्थिति में जब सब अपने-अपने गुटों में बंटे हुए हैं, दोनों समुदायों के बीच संभाषी का काम करने वाले धूर्त और घटिया राजनीतिक बिचौलिए कहीं से उभर आए हैं और कुछ संवेदनशील मुद्दों को पकड़कर वे उन लोगों पर अपनी पकड़ को मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं, जिनका प्रतिनिधित्व करने का वे दिखावा करते हैं।

वे जमीन और रोजी-रोटी से जुड़े दूसरे जरूरी मुद्दों को शाहबानो, बाबरी मस्जिद, वंदे मातरम, जामिया मिलिया, तसलीमा नसरीन इत्यादि मुद्दों से ढंकने और असली सवालों से ध्यान हटाने की कोशिश करते हैं।

एक साधारण भारतीय मुस्लिम के लिए वास्तविक मसले हैं – शिक्षा, नौकरी, सच्चर समिति की रिपोर्ट को लागू किया जाना और उनकी सलामती व सुरक्षा। निश्चित तौर पर एक आम मुस्लिम नागरिक का मुद्दा बाबरी मस्जिद नहीं है। मुस्लिम नेताओं को जमीन का वह टुकड़ा हिंदू भाइयों को मंदिर बनाने के लिए दे देना चाहिए।

मुस्लिमों का मौजूदा नेतृत्व युवाओं की अंतर्प्रणा और उनके सपनों को समझने में पूरी तरह नाकाम रहा है। मुस्लिम युवा एक प्रबुद्ध भविष्य की ओर देख रहा है। आरक्षण और विशेष सुविधा और मदद की आस में बैठने के बजाय वह इस प्रतिस्पर्धा में बराबरी से भागीदार होना चाहता है। मुस्लिम नौजवानों का गुलाम नबियों, नजमाओं, शहाबुद्दीनों, अहमद पटेलों और अब्बास नकवियों जैसों से मोहभंग हो चुका है।

मुस्लिमों को समझना चाहिए कि उन्हें अपने संपूर्ण नजरिए में बदलाव लाने की जरूरत है। आज बहुसंख्यक समुदाय का एक बहुत बड़ा हिस्सा उन्हें नापसंद करता है। यह बात न सिर्फ सांप्रदायिक हिंदू राजनीतिज्ञों, बल्कि मीडिया के रवैए से भी जाहिर होती है।

ये सभी इस्लाम को ज्यादा उदारता के साथ नहीं प्रस्तुत करते। भारत बहुत सारी विविधताओं वाला देश है। कोई एक समुदाय यह दावा नहीं कर सकता कि उसकी सांस्कृतिक विरासत व परंपराएं बहुत समृद्ध हैं। लेकिन जो बात काबिले तारीफ है, वह यह कि इतनी विविधताओं के बावजूद भारत एकता के सूत्र में बंधा है।

आज हिंदुस्तान में मुस्लिमों को हरसंभव प्रयास करने चाहिए कि वे धार्मिक पूर्वाग्रहों और इतिहास के ध्वंस और लड़ाइयों के हर जाले को काटकर फेंक दें। उन्हें हिंदुओं के साथ मैत्री का हाथ बढ़ाने और उनसे अपनी मैत्री को मजबूत करने का उसी तरह प्रयास करना चाहिए, जैसा उनके महान नेताओं मौलाना अबुल कलाम आजाद और सर सैयद अहमद खां ने किया था।

लगातार धर्म और जाति पर आधारित होते जा रहे एक लोकतांत्रिक ढांचे में मुस्लिमों को हिंदुओं के साथ मित्रवत व्यवहार करना चाहिए और बेकार के मुद्दों पर भड़कने और एकजुट होने से परहेज करना चाहिए। इस बात में जरा भी संदेह नहीं है कि यदि मुस्लिमों की विपदाओं और उनकी समस्याओं को ठीक ढंग से हिंदुओं के सम्मुख रखा जाए तो उनकी प्रतिक्रिया सकारात्मक ही होगी।

इससे न सिर्फ उनके खिलाफ बने बहुत से पूर्वाग्रहों को खत्म करने में मदद मिलेगी, बल्कि इससे ऐसा वातावरण भी निर्मित होगा, जिसमें हिंदू समुदाय के साथ एक अर्थपूर्ण और चिरस्थायी सामंजस्य और समभाव विकसित किया जा सकता है। सर्वप्रथम तो मंदिर की जमीन हिंदुओं को न देकर मुस्लिमों ने इस अवसर को गंवा दिया है।

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